सर्वभूतेषु, मातृरूपेण, शक्तिरूपेण, श्रद्धारूपेण संस्थिता
सर्वभूतेषु, मातृरूपेण, शक्तिरूपेण, श्रद्धारूपेण संस्थिता कहकर स्त्री की वंदना आदि काल से की जाती रही है।
परन्तु जब विश्वामित्र को दिए वचनों के कारण दक्षिणा चुकाने की बात आती है तो सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र द्वारा काशी के बाजार में यही मातृरूपेण शैव्या को बेच दिया जाता है।
द्वापर युग में सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी अर्जुन के द्वारा स्वयंवर में जीती गई द्रोपदी पांचों पांडवों की पत्नी बन कर अपना जीवन व्यतीत करती है। एक वस्तु की भांति स्त्री को पांच लोगो के बीच बाट दी जाती है.... बात यही ख़त्म नहीं हो जाती हैं, युधिष्ठिर द्रोपदी को जुए में दाव पर लगा कर हार जाते है।
द्रुत क्रीड़ा भवन में दुहशासन के द्वारा द्रोपदी को घसीट कर लाया जाता है और भारी सभा में दुर्योधन द्रोपदी को नंगा करने का आदेश दे देते है। यह बात और है कि नअतिबिलंब वासुदेव ने आकर द्रोपदी की अस्मत बचा लिए।
सोचने वाली बात यह है कि नारी आदि शक्ति है और पूजनीय है , तो यह बात वहां मौजूद भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाार्य, कृपाचार्य, गांडीवधारी अर्जुन , दस हाथियों सा बलशाली भीम इन बातो को भूल कैसे गए। क्यों एक स्त्री , एक पुत्री के रक्षा का ख्याल नहीं आया ? एक से एक वीर धनुर्धर नत मस्तक होकर एक अबला द्रौपदी की इज्जत भारी सभा में नीलाम होते देखते रहे।
एक तरफ जहां स्त्री को माता आदि कह कर पूजा अर्चना की जाती है, माता को भगवान का रूप कहा जाता है। वहीं दूसरी तरफ एक स्त्री को एक वस्तु और एक आज्ञाकारी दासी का रूप दिया गया है। यह कैसी विडंबना है।
इन तमाम परस्थितियों से जुड़े स्त्री जीवन पर गौर करे तो एक स्त्री और पुरुष के जीवन में ढेरों विषमताएं देखें को मिलती है ।
स्त्री का जीवन तो एक मुसाफिर का जीवन है ,जो न तो उस स्थान को प्राप्त कर पाती है, जो उससे अपेक्षित है। ना ही उसे जीने की स्वतंत्रता होती है। ये बात भी है कि जीते जी अपने तमाम सुखो का त्याग कर देना पुरुषों द्वारा संभव नहीं। वाकई पीड़ादायक है स्त्री जीवन!
सर्वस्व समर्पण करने के बाद भी स्त्री एक त्रासित जीवन जीने को मजबूर हैं। सच तो यह है कि ' पुरुषों की सोच एकांगी है। वह कभी स्त्री जीवन को गहराई से परखने की चेष्ठा नहीं करता, और तब स्त्री मूकदर्शक बन कर जीने को मजबूर हो जाती हैं।'
यह संसार तो चार दिनों का मेला है। स्त्री और पुरूष एक सिक्के के दो पहलू है। दोनों का महत्व समान है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं।
ऐसा नहीं की स्त्री को पुरुष से बेहतर होना चाहिए या पुरुषों को स्त्री से बेहतर होना चाहिए, परंतु सम्मान पाने का हर कोई अधिकारी है।
स्त्री मानव जाति का अभिन्न अंग है। इसके बिना संसार का आगे बढ़ना संभव नहीं।
इन दिनों स्त्री को विशेष बनाने पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन स्त्री तो युगों से देवी की भांति पूजी गई है, परंतु इसका कल्याण नहीं हो पाया, इतिहास इसका साक्षी है। नारी जाति को विशेष क्यों बनाने पर जोर दिया जा रहा है , यह समझ से परे है। क्यों की कही न कही यह लिंग भेद को बढ़ावा दे रहा है । विशेष बनाने की चाह त्याग कर ' समान्य ' ही रहने दिया जाए, इसी में कल्याण है। सत्य क्या, असत्य क्या, इस सीमा से परे जाकर सोचे, क्यों कि जब नारी जाति का अपमान होता है तो मानव के सृष्टि के रचयिता का अपमान करता है।
चलते चलते यही कहेंगे कि लिंग- भेद को बहुत ज्यादा महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। हम इंसान है; और हम इंसानों को बस इंसान की तरह देखने में सक्षम होना चाहिए।
या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता|
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः||
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1 टिप्पणियाँ:
Awesome....very truly presented the condition of women in society.
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