मै सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र जैसा तो नहीं, लेकिन सत्यवादी बनने का जरूर प्रयत्न करता रहा हूं। जब की आप अपने चारों तरफ़ नजर घुमाएंगे तो सिर्फ झूठ का बोल बाला है, पाएंगे। सच- झूठ का अपने में इस कदर भाईचारा हो गया है कि पता ही नहीं चलता है कि सच कौन और झूठ कौन !
अब यह कह दिया जाए की शुद्ध सच का लोप हो गया है संसार से , तो ठहर जाइए ऐसा नहीं है । वर्तमान की स्थिति यह है की किसी की बातों में यदि सच का प्रतिशत अधिक होता है तो कम सच प्रतिशत के सामने उसे शुद्ध सच ही कहा जाता है। एक आदर्श कथन हमारे महान देश का ' सत्यमेव जयते' शोभा की वस्तु प्रतीत होता है। हालांकि किन किन लोगो के आचरण में शामिल है आप ही निर्णय कर लीजिए ना । इन दिनों मैं सच बोलने का भरसक प्रयत्न किया करता हूं। 14 साल का था मै, ठीक ठीक याद है की बहुत असमंजस वाली स्थिति से गुजरा था, मतलब झूठ बोले तो पकड़े जाने पर पिटाई होती थी । और यदि सच बोला तो झूठ बोलने से जायदा कुटाई होती थी। मतलब करे तो करे क्या? तब हमारे गणित के गुरु जी ( नाम क्या लेना ), ने रास्ता दिखाया कि " यदि जरूरत ना हो तो झूठ नहीं बोलना है " और इन्हीं तथ्यो के आधार पर दावा कर सकता हूं की जो भी अच्छा खराब बोला हूं उसमे निश्चित सच का प्रतिशत अधिक रहा होगा । किसी व्यक्ति में अच्छाई और बुराई में जिसका पलरा भारी होता है उसी के कारण वह जाना जाता है। अब ना तो कोई सत प्रतिशत सच्चा होता है और ना ही सत प्रतिशत झूठा होता है, तो इसी आधार पर मै खुद को सत्यवादी मानता रहा हूं।
हालांकि सत्यवादी होने का प्रमाण आपको मेरे दोस्तो से भी मिल सकता है। वो कहते है ना कि हर एक दोस्त कमीना होता है, लेकिन मेरे लिए मेरे लिए मेरा कोई दोस्त कमीना नहीं है।
वो दिन बाकी दिनों के जैसे बिल्कुल नहीं था जब मुझे मेरे स्कूल के गुरुजी छड़ी से खदेड़ते हुए स्कूल ले गए थे, बस मुझे यही दिन याद है बांकी इसके ठीक एक दिन पहले और बाद की घटना मुझे जरा भी याद नहीं। अपने बराबर के परिचित लड़कों के बीच ही बैठाया गया था। सब के सब छठे हुए शरारती थे। गुरु जी आए और जादूगर के समान हवा में छड़ी घुमा कर बोले " सदा सच बोलो " मैंने तो बस कसम खा ली क्यों की वजह भी थी कसम खाने की पूरी रास्ते गुरु जी स्कूल कूटते हुए लाए थे। हमको लगा यही महलम है। वैसे भी अपना क्या ही जाता है , सब कहते है तो लो सच ही बोलेंगे और सच के सिवा कुछ नहीं बोलेंगे।
कुछ दिन बाद मुझे क्रिकेट के कीड़े से काट लिया। क्लास छोड़ कर चला गया । दूसरे दिन पुछने पर गुरु जी को सारा वाकया सुना दिया। आगे की कहानी बताने की जरूरत ही क्या है, आप खुद समझ जाओ गुरु जी क्या किए होंगे। मेरे सहपाठी जो अब दोस्त बन गए थे, ने मेरे हसी उड़ाई , सबने कहा झूठ ही बोल देते देते। इस स्थिती में बहाने ही काम आते है। एक और सीख मिल चुका था। यह तो बिल्कुल नया सा ज्ञान था, खैर मैंने ग्रहण कर लिया।
हालांकि मैंने दूसरा रास्ता भी अपनाया था, वहीं बहाना वाला , लेकिन वो भी काम नहीं आया।आलम यह रहा कि सच का प्रतिशत जायदा रहा और कुटाई का प्रतिशत भी । झूठ बोलना भी एक कला है। हर किसी के बस की बात नहीं है श्रीमान।
लेकिन थोड़ा चालक जरूर हो गया था, फिर भी सफेद झूठ बोलने कभी नहीं आ पाया। बस मुहावरों के कॉलम में याद किया कि सफेद झूठ मतलब सारा - सर झूठ।
मतलब अब सच्चाई का प्रमाण कसम खाने से सिद्ध करने लगा था। मतलब कोई बात यदि सामने वालों को भ्रामक लगे तो कसम खाओ। जैसे विद्या कसम, और कोई भी प्रिय वस्तु या व्यक्ति का कसम। कसम खाने की अंदाज़ कुछ ऐसा होता था कि कसम खा कर न्यूटन के सिद्धांतों को भी झुठलाया जा सकता था।
हर रोज एक नई कसम , टुकड़े टुकड़े के कसम खाते चेहरे पर मूंछें आने लगी थी। उस समय तक यदि सच का प्रतिशत निकाला जाता तो 17 साल के उम्र तक सच्चाई के प्रितिशत से पाचवी तो जरूर पास हो सकता था।
मेरे कान भी गवाह है, बहुत खींचे गए हैं सच बोलने पर, लेकिन उसने कभी शिक़ायत नहीं किया।
कभी कभी ऐसे परिस्थिती से सामना हुआ की सच बोलने से थकावट सी होने लगी थी। आख़िर अकेला मै ही कब तक सच बोलता रहूंगा। जैसे पूरे तलाब में एक ही साफ मछली है।
मेरा ऐसा मानना शुरू से नहीं रहा हैं , कुछ खास परिस्थिती के कारण शायद । आख़िरकार झूठ और सच के चक्की के बीच मैंने खुद की हितो की रक्षा करना भी सीख गया।
मैंने गणित वाले गुरुजी की सीख को अपने जीवन में उतर लिया । और अब 24 साल का एक बड़ा सा जीवन जी चुका हूं और अब सच का प्रतिशत दसवीं कक्षा पास करवाने के लायक हो गया है।
मैंने अपने मासूम से चेहरे के साथ सत्य बोलने वाले व्यक्ति का वो मुकाम हासिल कर लिया है कि जिसके पीछे तो कुछ - कुछ झूठ भी सच ही होते है । वो भी बिना शक किए। लेकिन एक मै ऐसा दावा कर सकता हूं कि झूठ और सच के बीच जीवन जीना एक कला है और इस कला को सीखने में मेरे दोस्तों ने भी पसीने धन्वामै सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र जैसा तो नहीं, लेकिन सत्यवादी बनने का जरूर प्रयत्न करता रहा हूं। जब की आप अपने चारों तरफ़ नजर घुमाएंगे तो सिर्फ झूठ का बोल बाला है, पाएंगे। सच- झूठ का अपने में इस कदर भाईचारा हो गया है कि पता ही नहीं चलता है कि सच कौन और झूठ कौन !
अब यह कह दिया जाए की शुद्ध सच का लोप हो गया है संसार से , तो ठहर जाइए ऐसा नहीं है । वर्तमान की स्थिति यह है की किसी की बातों में यदि सच का प्रतिशत अधिक होता है तो कम सच प्रतिशत के सामने उसे शुद्ध सच ही कहा जाता है। एक आदर्श कथन हमारे महान देश का ' सत्यमेव जयते ' शोभा की वस्तु प्रतीत होता है। हालांकि किन किन लोगो के आचरण में शामिल है आप ही निर्णय कर लीजिए। मै भी आज की दिनों ने सच बोलने का भरसक प्रयत्न किया करता हूं। हालांकि मै 14 साल का था, ठीक ठीक याद है मुझे बहुत असमंजस वाली स्थिति से गुजरा था, मतलब झूठ बोले तो पकड़े जाने पर पिटाई होती थी । और यदि सच बोला तो झूठ बोलने से जायदा कुटाई होती थी। मतलब करे तो करे क्या? तब हमारे गणित के गुरु जी ( नाम क्या लेना ), ने रास्ता दिखाया कि " यदि जरूरत ना हो तो झूठ नहीं बोलना है " और इन्हीं तथ्यो के आधार पर दावा कर सकता हूं की जो भी अच्छा खराब बोला हूं उसमे निश्चित सच का प्रतिशत अधिक रहा होगा । किसी व्यक्ति में अच्छाई और बुराई में जिसका पलरा भारी होता है उसी के कारण वह जाना जाता है। अब ना तो कोई सत प्रतिशत सच्चा होता है और ना ही सत प्रतिशत झूठा होता है, तो इसी आधार पर मै खुद को सत्यवादी मानता रहा हूं।
हालांकि सत्यवादी होने का प्रमाण आपको मेरे दोस्तो से भी मिल सकता है। वो कहते है ना कि हर एक दोस्त कमीना होता है, लेकिन मेरे लिए मेरे लिए मेरा कोई दोस्त कमीना नहीं है।
वो दिन जब मुझे मेरे स्कूल के गुरुजी छड़ी से खदेड़ते हुए स्कूल ले गए थे, बस मुझे यही दिन याद है बांकी इसके ठीक एक दिन पहले और बाद की घटना मुझे जरा भी याद नहीं। अपने बराबर के परिचित लड़कों के बीच ही बैठाया गया था। सब के सब छठे हुए शरारती थे। गुरु जी आए और जादूगर के समान हवा में छड़ी घुमा कर बोले " सदा सच बोलो " मैंने तो बस कसम खा ली क्यों की वजह भी थी कसम खाने की पूरी रास्ते गुरु जी स्कूल कूटते हुए लाए थे। हमको लगा यही महलम है। वैसे भी अपना क्या ही जाता है , सब कहते है तो लो सच ही बोलेंगे और सच के सिवा कुछ नहीं बोलेंगे।
कुछ दिन बाद मुझे क्रिकेट के कीड़े से काट लिया। क्लास छोड़ कर चला गया । दूसरे दिन पुछने पर गुरु जी को सारा वाकया सुना दिया। आगे की कहानी बताने की जरूरत ही क्या है, आप खुद समझ जाओ गुरु जी क्या किए होंगे। मेरे सहपाठी जो अब दोस्त बन गए थे, ने मेरे हसी उड़ाई , सबने कहा झूठ ही बोल देते देते। इस स्थिती में बहाने ही काम आते है। एक और सीख मिल चुका था। यह तो बिल्कुल नया सा ज्ञान था, खैर मैंने ग्रहण कर लिया।
हालांकि मैंने दूसरा रास्ता भी अपनाया था, वहीं बहाना वाला , लेकिन वो भी काम नहीं आया।
आलम यह रहा कि सच का प्रतिशत जायदा रहा और कुटाई का प्रतिशत भी । झूठ बोलना भी एक कला है। हर किसी के बस की बात नहीं है श्रीमान।
लेकिन थोड़ा चालक जरूर हो गया था, फिर भी सफेद झूठ बोलने कभी नहीं आ पाया। बस मुहावरों के कॉलम में याद किया कि सफेद झूठ मतलब सारा - सर झूठ।
मतलब अब सच्चाई का प्रमाण कसम खाने से सिद्ध करने लगा था। मतलब कोई बात यदि सामने वालों को भ्रामक लगे तो कसम खाओ। जैसे विद्या कसम, और कोई भी प्रिय वस्तु या व्यक्ति का कसम। कसम खाने की अंदाज़ कुछ ऐसा होता था कि कसम खा कर न्यूटन के सिद्धांतों को भी झुठलाया जा सकता था।
हर रोज एक नई कसम , टुकड़े टुकड़े के कसम खाते चेहरे पर मूंछें आने लगी थी। उस समय तक यदि सच का प्रतिशत निकाला जाता तो 17 साल के उम्र तक सच्चाई के प्रितिशत से पाचवी तो जरूर पास हो सकता था।
मेरे कान भी गवाह है, बहुत खींचे गए हैं सच बोलने पर, लेकिन कभी शिक़ायत नहीं किए।
कभी कभी ऐसे परिस्थिती से सामना हुआ की सच बोलने से थकावट सी होने लगी थी। आख़िर अकेला मै ही कब तक सच बोलता रहूंगा। जैसे पूरे तलाब में एक ही साफ मछली है।मेरा ऐसा मानना शुरू से नहीं रहा हैं , कुछ खास परिस्थिती के कारण शायद । आख़िरकार झूठ और सच के चक्की के बीच मैंने खुद की हितो की रक्षा करना भी सीख लिया।
मैंने गणित वाले गुरुजी की सीख को अपने जीवन में उतर लिया । और अब 24 साल का एक बड़ा सा जीवन जी चुका हूं और अब सच का प्रतिशत दसवीं कक्षा पास करवाने के लायक हो गया है।
मैंने अपने मासूम से चेहरे के साथ सत्य बोलने वाले व्यक्तित्व का वो मुकाम हासिल कर लिया है कि जिसके पीछे तो कुछ - कुछ झूठ भी सच ही होते है । वो भी बिना शक किए। लेकिन एक मै ऐसा दावा कर सकता हूं कि झूठ और सच के बीच जीवन जीना एक कला है और इस कला को सीखने में मेरे दोस्तों ने भी खूब मदद किए । धन्यवाद् ।
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