छात्रावस्था में मित्रता की धन सवार रहती है। मित्रता हृदय से उमड़ पड़ती है। बाल मैत्री में जो मग्न करने बाला आनंद होता है,जो हृटय को बेधने वाली ईष्ष्यां और खिन्नता होती है, वह और कहाँ? कैसी मधुरता, कैसी अनुरक्ति तथा कैसा अपार विश्वास होता है। वर्तमान कैसा आनंदमय दिखाई देता है और भविष्य के संबंध में कैसी लुभाने वाली कल्पनाएँ मन में रहती हैं किंतु जिस प्रकार युवा पुरुष की मित्रता स्कूल के बालक की मित्रता से दढ शांत और गंभीर होती है, उसी प्रकार हमारी युवावस्था के मित्र बाल्यावस्था के मित्रों से कई बातों में मिन्न होते हैं। सुंदर प्रतिभा, मनभावनी चाल और स्वच्छंद प्रकृति, ये ही दो-चार बातें देखकर मित्रता की जाती है, पर जीवन संग्राम में साथ देने वाले मित्रों में इनसे कुछ अधिक बातें होनी चाहिए। मित्र केवत उसे नहीं कहते, जिसके गुणों की तो हम प्रशंसा करें, पर जिससे हम स्नेह न कर सकें, जिससे अपने छोटे-छोटे काम तो हम निकालते जाएँ, पर भीतर ही भीतर घृणा करते हैं। मित्र सच्चे पथ-प्रदर्शक के समान होना चाहिए, जिस पर हम पूरा विश्वास कर सके।
मित्र भाई के समान होना चाहिए जिसे हम अपना प्रीति-पात्र बना सकें । हमारे और हमारे मित्र के बीच सच्ची सहानुभूति होनी चाहिए। ऐसी सहानुभूति जिससे एक के हानि-लाभ को दूसरा अपना हानि लाभ समझे। मित्रता के लिए यह आवश्यक नहीं कि दो मित्र एक ही प्रकार का कार्य करते हों। दो भिन्न प्रकृति के भनुष्यों में भी बराबर प्रीति और मित्रता रही है। श्रीराम धीर और शांत प्रकृति के थे, लक्ष्मण उग्र और उद्धत स्वभाव के, पर दोनों भाइयों में प्रगाढ़ प्रेम था। समाज में विभिन्नता देखकर लोग एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं । जो गुण हममें नहीं हैं, हम चाहते हैं कि कोई ऐसा मित्र मिले जिसमें वे गुण हों। चिंताशील मनुष्य प्रफुल्लित चित्त का साथ दूँढता है, निर्बल बली का, धीर उत्साही का उच्च आकांक्षा याला चंद्रगुप्त युक्ति और उपाय के लिए चाणक्य का मुँह ताकता या। नीति विशाद अकबर मन बहलाने के लिए बीरबल की ओर देखा करता था।
मित्र का कत्त्तव्य इस प्रकार बताया गया है-"उच्च और महान कार्यों में इस प्रकार सहायता देना, मन बढ़ाना और साहस दिलाना कि तुम अपनी सामर्थ्य से बाहर काम कर जाओ ।" यह कुत्त्तव्य उसी से पूरा होगा जो दृढ़ चित्त और सत्य संकल्प का हो। इसीलिए हमें ऐसे मित्र की खोज में रहना चाजिए जिसमें हमसे अधिक आत्मबल हो। हमें उसका पल्ला उसी तरह पकड़ना चाहिए जिस तरह सुग्रीव ने राम का पल्ला पकड़ा था।
आजकल जान-पहचान बढ़ाना कोई बड़ी बात नहीं है। कोई भी युवा पुरुष ऐसे अनेक युवा पुरुषों को पा सकता है जो उसके साथ थियेटर देखने जाएँगे, नाच-रंग में जाएँगे, सैर-सपाटे में, भोजन का निमंत्रण स्वीकार करेंगे । ऐसे जान पहचान के लोगों से कुछ हानि न होगी तो लाभ भी न होगा। पर यदि हानि होगी तो बड़ी भारी होगी। यदि ये जान-पहचान के लोग उन मनचले युवकों में से निकलें जो अमीरी की बुराइयों और मूर्खताओं की नकल किया करते हैं, दिन-रात बनाव श्रृंगार में रहा करते हैं तो इनसे बढ़कर शोचनीय जीवन किसका होगा? हमें ऐसे प्राणियों का साथ नहीं करना चाहिए। कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता बल्कि बुद्धि का क्षय भी करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बंधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-रात अवनति के गड़ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली भुजा के समान होगी जो उसे निरंतर उन्नति की ओर उठाते जाएगी।
नोट :- यह निबंध वर्ग 10 के लिए महत्वपूर्ण है ।
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